शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

यादवी रार में ये तो होना ही था

उत्तरप्रदेश के वर्तमान ‘राजपरिवार’ में शुक्रवार को जो हुआ, उससे शायद ही कोई आश्चर्यचकित हुआ होगा। तकनीकी रूप से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी की आधिकारिक प्रत्याशी सूची के बावजूद अपनी अलग से सूची जारी कर अनुशासनहीनता की हो लेकिन सियासी धरातल पर उनके प्रशंसक या समर्थक उनसे ऐसे ही बागी तेवरों की उम्मीद इस कुनबे में लंबे अर्से से चल रही ‘यादवी रार’के हर अंक में चाह रहे थे। अब चूंकि 2017 के विधानसभा चुनाव की दुंदिभि बजने को ही है तो यह तो होना ही था। यादवी संघर्ष की अगली चालें विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल की भूमिका से तय होंगी। केंद्र सरकार का भी इसमें अहम रोल होगा, जाहिर है भाजपा इस पूरे वाकये को अपनी बढ़त में इजाफे में कोरकसर नहीं छोड़ेगी।
लोकतंत्र में दलों के अपने नियम कायदे होते हैं लेकिन हमारे देश में व्यक्तियों, कुंटुबों और परिवारों के दलों में एक ही व्यक्ति या उसके इर्द गिर्द वाले चंद लोगों के ही कायदे चला करते हैं। शिवपाल बनाम अखिलेश यानी चाचा बनाम भतीजा असल में पिता-पुत्र की लड़ाई बन गई है। इस जंग का अब उप्र की सियासत में किसको फायदा और किसको नुकसान होगा, यह सवाल अहम है। जो दिख रहा है उससे बनते दिख रहे समीकरणों की दिशा को समझें तो यह हालात मोदी के नेतृत्व में चुनाव में उतर रही भाजपा के लिए मुफीद हैं। कांग्रेस के सामने सवाल होगा कि वह बागी अखिलेश से हाथ मिलाए या भाजपा के खिलाफ राष्टÑीय स्तर पर लामबंदी के लिहाज से मुलायम सिंह से दोस्ती करे। जातीय राजनीति के प्रदेश उत्तरप्रदेश में इस विभाजन और संभावित गठबंधनों के बावजूद सबसे अहम जातीय समीकरण ही होगा। यह भाजपा भी समझ रही है और बसपा और कांग्रेस भी इसी गणित को साधने की भरसक कोशिश में जुटे हैं। भाजपा का मुकाबला अब दो तरह की सपा और एक बसपा के अलावा दशकों से हाशिए पर मौजूद कांग्रेस से होगा। फिलहाल एडवांटेज भाजपा के पक्ष में लग रहा है। सियासत में स्थाई निष्कर्ष निकालना बेमानी ही होता है, सो उप्र में जारी प्रहसन के अगले एपिसोड्स का इंतजार करना लाजिमी होगा, फिलहाल भगवा दल नोटबंदी से नुकसान की आशंका के बावजूद अपनी लोकसभा चुनाव की बढ़त बरकरार रखने को लेकर मुतमईन हो सकता है।
                                                                                            -सतीश एलिया

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

अनुपम मिश्र का जाना........जैसे रीत गया कोई खरा तालाब


      अनुपम मिश्र नहीं रहे। आज जब यह खबर आई तो जिसने भी सुना यही कहा अरे ! फिर अवाक। लगा जैसे कोई लहलहाता तालाब रीत गया। वे ठीक वैसे ही थे, जैसा उनकी जगत प्रसिद्ध किताब का शीर्षक था ‘आज भी खरे हैं तालाब’। उतने ही खरे जितने तालाब होते हैं और उतने ही खरे जैसे पहली दफा मिलते ही लगे थे और हर बार उतने ही खरे लगे और रहे। आदमी का खरापन देखने, समझने और गुनने के वे जैसे पैमाने ही थे। सादगी की मिसाल थे वे और कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हेंं चपेट में ले लिया था। वे 68 वर्ष की वय में हमारे बीच से चले गए। यह अपूरणीय क्षति है। एक नहीं कई अर्थों में उनके जाने से रिक्तता आई है। मैं उनसे पहली दफा 25 बरस पहले भोपाल में ही मिला था। तब में माखनलाल चतुर्वेदी राष्टÑीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पहले बैच (1991-92) का विद्यार्थी था और विवि में मेरे सखा जेठू सिंह भाटी जो राजस्थान के जैसलमेर के थे, मुझे एक कार्यक्रम में ले गए थे। जेठू सिंह अनुपम जी को राजस्थान में अपने गांव से ही जानते थे। वे पूरे राजस्थान, मप्र और महाराष्टÑ के हजारों गांवों में पानी को सहेजने के तरीके और जल संस्कार की गवेषण के लिए जा चुके थे। भाटी ने मुझे उनसे मिलवाया तो उनकी सादगी से तो प्रभावित हुआ ही और इसलिए भी अभिभूत हुआ कि वे हमारे मप्र के कविश्रेष्ठ पं. भवानी प्रसाद मिश्र के सुपुत्र थे। गांधीवाद की प्रतिमूर्ति अनुपम भाई ने अपने झोले में से निकालकर मुझे अपनी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ दी। सप्रेम हस्ताक्षर भी किए। वह किताब में उसी रात एकबारगी पढ़ गया। पानी सहेजने के पुराने तौर तरीके, संस्कार और पानीदार समाज की जो जीवंत तस्वीर उन्होंने उतारी वह किसी और के लिए शायद असंभव ही है। इस किताब को पढ़कर आपके अंदर पानीदार होने का संस्कार पनप उठता है और आप तालाबों, बावलियों और कुओं की बदहाली से छटपटाने लगते हैं। अनुपम जी से इसके बाद दो बार और मुलाकात हुई वैसे ही मिले, लगे जैसे कि पहली दफा लगे और मिले थे। वे मप्र, राजस्थान और महाराष्टÑ के अलावा देश भर के प्राचीन जलस्त्रोतों के बारे में जानकारी के मानो एनसाइक्लोपीडिया ही थे। मसलन वे बातचीत में कह रहे थे कि लोग दिल्ली में यमुना नदी के प्रदूषण की तो चिंता करते हैं, करना ही चाहिए लेकिन क्या आपको पता है एक वक्त में दिल्ली में आठ सौ तालाब भी थे। ऐसी ही जानकारी वे मप्र के किसी भी जिले के बारे में बता देते थे। मप्र में जब दिग्विजय सिंह की सरकार थी तो जल संरक्षण की मुहिम शुरू हुई थे। तब वे भी कई कार्यक्रमों में आते रहे थे। तब भी मेरी बतौर पत्रकार उनसे मुलाकात हुई और हर बार उनसे नई और जानने लायक जानकारी मिली।
अनुपम मिश्र मप्र के होशंगाबाद के टिगारिया के थे लेकिन उनका जन्म गांधीवाद की प्रमुख प्रयोग स्थली वर्धा में हुआ था। दिल्ली में वे गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष में रहते थे और गांधी मार्ग पत्रिका के संपादक थे। गांधीवाद के जीवंत प्रतिमान अनुपम जी का स्थाई घर नहीं था, वे पूरे देश को ही अपना घर मानते थे। सादगी इतनी की वे अपने बालों की कटिंग तक खुद करते थे। जल और पर्यावरण संरक्षण के काम में वे लगातार देशाटन करते रहे थे। मैगसेस प्राप्त जलपुरुष राजेंद्र सिंह की संस्था तरुण भारत से जुडे रहे और चंडी प्रसाद भट्ट के चिपको आंदोलन से भी। अनुपम जी ने जल संरक्षण के पारंपरिक तरीकों और उनकी वैज्ञानिकता को लेकर जो अध्ययन किया और उनकी किताबें आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदों ने न केवल भारत बल्कि दुनिया भर की जल बिरादरियों को एक दिशा दी थी। यही वजह है कि सुदूर अफ्रीका के कई देशों में लोगों ने उनकी किताबें पढ़कर अपने यहां जल संरक्षण के प्राचीन भारतीय तरीके अपनाए और जल संकट से जूझने की ताकत हासिल की। यह दुर्भाग्य की ही बात है कि हमारे बीच अनुपम मिश्र सरीखे जलपुरुष की मौजूदगी के बावजूद न समाज और न ही सरकारों ने पारंपरिक जलस्त्रोतों को बचाने के लिए कोई गंभीर जतन किए। मप्र में ही हजारों गांवों और कस्बों, छोटे बड़े शहरों में वे बावलियां, कुएं खत्म हो गए हैं या खत्म किए जा रहे हैं जो सदियों से भीषण गर्मी में भी शीतल जल उपलब्धता कराते रहे थे। करोड़ों रुपए खर्च कर चलाई जा रही नल जल योजनाओं ने पारंपरिक जलस्त्रोतों को लील लिया है और इस बलि के बावजूद हर साल भीषण जल संकट न केवल गहराता है बल्कि साल-दर-साल और विकट होता जाता है। पानी एक जगह से दूसरी जगह ढोया जाता है और धन की बर्बादी होती है। यह बर्बादी होती ही नहीं अगर हम अपने प्राचीन जल स्त्रोतों को मरने नहीं देते याकि मार नहीं डालते। याद कीजिए अपने बचपन या अपने पिता से पूछिए उनके बचपन में उनके गांव में या मोहल्ले में कितने जलस्त्रोत थे? कितनी बावलियां, कुएं थे। वे अब कहां हैं। भोपाल, जबलपुर, रीवा, सागर, सतना और अन्य ऐसे ही बड़े, मंझौले या छोटे शहरों कस्बों में अब इलाकों के नाम तालाबों पर हैं, लेकिन वे तालाब अब कहां हैं? तालाबों को पाटकर इमारतें खड़ी करने की हवस ने हमारे समाज को गैर पानीदार समाज में बदल दिया। अनुपम मिश्र इसी के विरुद्ध हमें चेताते और जगाते रहे थे, उनके जाने के बाद भी उनकी किताबें यह काम करती रहेंगी। पानीदार समाज बनने की दरकार अब और ज्यादा है और हम अब भी चेत गए और अपने पारंपरिक जलस्त्रोतों का जलाभिषेक कर पाए तो पानी का संकट और भयावह नहीं होगा। यह मैं कह रहा हूं लेकिन यह बात मुझे सिखाई अनुपम मिश्र ने है, वे तालाब से ही खरे थे और उनके जाने से ऐसा लगा फिर रीत गया गया कोई तालाब....।                                                                          - सतीश एलिया

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

उम्र से लम्बा हादसा

ग्यारह हजार 680 दिन यानी दो लाख 80 हजार 320 घंटे बीत चुके हैं भोपाल में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कारबाइड से जहरीली गैस रिसने से शुरू हुई सतत त्रासदी को। हादसे के वक्त और तब से अब तक  हजारों लोग इस नासूर का शिकार हो चुके हैं। राहत, पुनर्वास और मुआवजे की लंबी त्रासद प्रक्रिया, राजनीति के घटाटोप में पीड़ितों को न्याय और दोषियों को बाजिब सजा मिलने की संभावना कहीं गुम हो गई है। सामूहिक नरसंहार के बदले भारत सरकार ने यूनियन कारबाइड से जो 750 करोड़ रुपए लिए थे, उसका उचित रूप से बंटवारा नहीं हो सका। साढ़े सात लाख मुआवजा दावे थे, उनमें से सबका निपटारा तक नहीं हो सका। समूचे भोपाल को गैस पीड़ित घोषित करने की मांग पर ढाई दशक तक राजनीति जारी रही। यह दिल्ली में कांग्रेस सरकारों के वक्त इस मुद्दे को सर्वाधिक उठाते रहे भाजपा नेता बाबूलाल गौर दो दफा गैस त्रासदी राहत मंत्री और एक दफा मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं, लेकिन उन्होंने यह मुद्दा सत्ता मिलते ही छोड़ दिया।
इधर भोपाल शहर में करोड़ों की लागत से बनीं भव्य इमारतें जिन्हें अस्पताल नाम दिया गया है, में करोड़ों रुपए खर्च कर विदेशों से लाई गई मशीनें धूल खा रही हैं। अगर इन अस्पतालों में सब कुछ ठीक से चलने लगे तो भोपाल देश का सर्वाधिक स्वास्थ्य सुविधा संपन्न शहर हो सकता है। लेकिन दो दशक में ऐसा होने के बजाय हालात और बदतर हो गए हैं। दवाएं खरीदने के नाम पर घोटालों के बीच अपने सीने में घातक गैस का असर लिए गैस पीड़ित आज भी तिल तिलकर मर रहे हैं। दवाओं का टोटा न अस्पतालों में नजर आता है और न ही आंकड़ों में। लेकिन लोग दवाओं के लिए भटकते रहते हैं।
विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी का तमगा हासिल कर चुके इस भोपाल हादसे के मुजरिमों को न केवल तत्कालीन सरकारों ने भाग जाने दिया बल्कि बाद की सरकारों ने नाकाफी हजार्ना लेकर समझौता करने से लेकर आपराधिक मामले में धाराएं कमजोर करने जैसे अक्षम्य अपराध कर कानूनी पक्ष को कमजोर किया। इससे प्राकृतिक न्याय की मूल भावना कमजोर हुई। आर्थिक हजार्ना कभी मौत के मामले में न्याय नहीं हो सकता, फिर यह तो सामूहिक नरसंहार का मामला है। उच्चतम न्यायालय ने 13 सितंबर 1996 के फैसले में यूनियन कारबाइड से जुड़े अभियुक्तों के खिलाफ आईपीसी की दफा 304 के स्थान पर 304- ए के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। इसके तहत यूका के खिलाफ फैसला होने पर अभियुक्तों को दो वर्ष कैद और पांच हजार रुपए जुमार्ने की सजा होगी। इस मामले में यूनियन कारबाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, यूका ईस्टर्न हांगकांग तथा यूका इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा समेत 10 अन्य अभियुक्त बनाए गए थे। एंडरसन प्रमुख अभियुक्त होने के बावजूद भारत में अदालत के सामने पेश नहीं हुआ। उसकी मौत हो चुकी है और अब जाकर उस वक्त उसे सेफ पैसेज देने के मामले में तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह के खिलाफ केस दर्ज हुआ है। लेकिन उन्होंने जिनके आदेश पर यह सब किया उनके खिलाफ कुछ नहीं हो सका। उस वक्त के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। कांड के दोषी और उन्हें बचाने के दोषी भी काल कवलित हो गए और हादसे में काल कवलित हुए बेकसूरों के खून का इंसाफ नहीं हो सका। भाजपा की सरकार ने भी एक और आयोग बनाया लेकिन यह भी लगातार त्रासदी झेल रहे लोगों के किसी काम न आ सका। गैस पीड़ितों की मदद में 32 साल पहले उठे हाथ अब चंद पीड़ितों के हाथों में मोमबत्ती की रस्म पूरी करने तक सीमित रह गए हैं। गैस पीड़ितों के झंडाबरदार संगठनों की संख्या बढ़ती गई और उनके बीच भी झंडारबरदारी की आरोप प्रत्यारोप की सियासत तल्ख हो चुकी है। आलम ये है कि भोपाल के एडीएम ने तीन दिसंबर को त्रासदी के रोज सरकारी छुट्टी पर सवालिया निशान लगा दिया है। न सरकार, न गैर पीड़ित जनता और न ही झंडाबरदारों, सियासतदानों को कोई फिक्र है। भोपाल हादसे से किसी भी तरह का सबक नहीं लिया गया है। आज भी भोपाल में और देश भर में घनी आबादियों के बीच घातक कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर कहीं हर कभी छोटे छोटे भोपाल घट रहे हैं। ढाई दशक बाद न भोपाल ने न मप्र ने न भारत ने और न ही दुनिया ने भोपाल से कोई सबक लिया है।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

शिप्रा तट पर अमृत के मेले में रात नहीं होती




दृश्य-1

दिन गुरूवार 21 अप्रैल रात के करीब 10 बजे हैं, उज्जैन शहर में प्रवेश करने वाले रास्तों पर एक किस्म का सन्नाटा है, पुलिस छावनी का सा सन्नाटा है ये, हर चौराहे पर अनगिनत बेरीकेड्स, पुलिस के जवान किसी को यूं ही शहर में प्रवेश नहीं करने देते। बाजारों में भी चहल-पहल जैसे थमी सी है, सिवाए हर चौराहे और बाजार में एक खास दुकान के जिस पर लगा बैनर भीड़ की वजह स्वयं बता रहा है- मदिरा की दुकान, कल से एक माह के लिए बंद रहेगी। मयकशों ने रात 11 बजने तक ऐसी दुकानों और आसपास को गुलजार बनाए रखा।
दृश्य-दो
हम अब मेला क्षेत्र यानी पुण्य सलिला शिप्रा के तटों और आसपास के इलाकों की तरफ जाने वाले मार्गों से गुजर रहे हैं। ये क्या यहां तो नजारा ही बदल हुआ है, रात 12 बजने को हैं और चहल पहल ऐसी मानो दिन हो। साधु, संतों, शंकराचार्यों के पंडालों के बाहर भीड़, अंदर कहीं कथा-प्रवचन, कहीं आरती, कहीं भोजन भंडारा चल रहा है। अब हम आ पहुंचे मंगलनाथ घाट। पुल पर लोगों की चहल पहल, घाटों पर शिप्रा में फौहारों से उड़ती जल रश्मियों का लुत्फ लेते लोग। घाट से लौटे तो शिप्रा में बदस्तूर मिलते रहने वाले नाले से भी रूबरू हुए। मेले के पंडालों की तरफ लौटे तो हर जगह साधुओं की तैयारी दिखी अलसुबह पांच बजे शुरू हो रहे शाही स्रान के लिएि वे सज-धज रहे थे। नागा साधुओं का उत्साह तो ऐसा मानो विश्व विजय के लिए बस निकलने ही वाले हैं। तन बदन पर भभूत रमाए, कुछ साधु नग्न देह को फूलों की मालाओं से अलंकृत करते दिखे, हाथ में त्रिशूल, कोई तलवार कोई और हथियार लिए, खुशी का पारावार नहीं, बस चंद घंटे दूर है सिंहस्थ महापर्व का शाही स्रान। इधर प्रशासन की चिंता बढ़ती जा रही है, रामघाट, दत्त अखाड़ा घाट रात 1 बजे आम श्रद्धालुओं से खाली करा लिए गए। प्रभारी मंत्री भूपेंद्र सिंह रात डेढ़ बजे भी निरीक्षण में घूम रहे हैं, अफसर भी पुलिस कर्मी भी, सभी मुस्तैद और कहीं कोई गड़बड़ न हो जाए इस आशंका से भी ग्रस्त। दो बज गए, अब महज दो घंटे भी नहीं हैं क्रमानुसार अखाड़ों की सवारी शाही स्रान के लिए रवाना होने की। तीन बजते बजते दशनामी जूना अखाड़ा का दल पूरी तरह तैयार होकर रवानगी को उद्धत है। बाकी अखाड़ों में भी साधु के साज श्रृंगार जारी हैं।
दृश्य-तीन
चार बज गए अब घाटों पर शाही स्रान देखने वाले श्रद्धालु भी जमने लगे हैं। लो आ गया पुण्यदायिनी मोक्षदायिनी शिप्रा के तट पर सिंहस्थ 2016 के आगाज का वक्त। सूर्य सिंह राशि में हैं, ब्रम्हबेला है, पांच बजे और दशनामी जूना अखाड़े का दल रामघाट पर आ गया, हर हर महादेव, हर हर महादेव के जयकारों के साथ दुंदुभियां, शंख बजाते, ध्वजाएं लहराते साधु अपने पीठाधीश्चर और इष्टदेव को पवित्र स्रान करने के बाद कूद पड़े शिप्रा की जलराशि में। अब सिलसिला शुरू हो गया अखाड़ों के क्रमश: आने का और जय जयकार के साथ डुबकियां लगाने का। पूरब में भगवान सूर्यदेव उदित हो गए, शिप्रा में आ रहा नर्मदा जल फौहारों से सूर्य रश्मिमय होेकर मानो इंद्रधनुष बनकर शिप्रा में उतर रहा है, नर्मदा जल शिप्रा में मिलकर शिप्रा हो रहा है, मानो नर्मदा जल भी शिप्रा स्रान कर सिंहस्थ के शाही स्रान पर्व में मिलकर एकाकार हो रहा है।
दृश्य-चार
धूप निकल आई है, भीड़ उतनी नहीं जितनी प्रशासन ने अनुमानित कर रखी थी, रामघाट और दत्त अखाड़ा घाट पर अखाड़ोंं का शाही स्रान जारी है, अन्य घाटों पर आम श्रद्धालुओं को स्रान की अनुमति है, लेकिन ज्यादातर घाट खाली हैं। गऊ घाट पर कुछ भीड़ जरूर दिखती है, आठ बजे करीब यह घाट भर गया, पुलिस कर्मी एनाउंस कर रहे हैं, दूसरे घाटों पर चाहिए खाली पड़े हैं, इस घाट पर जाएंगे तो आप धक्का मुक्की में फंस सकते हैं। रामघाट की ओर जाने वाले तटीय रास्ते को बीएसएफ के जवानों ने सील कर दिया है। प्रेस का पास भी इन जवानों को प्रभावित नहीं करता, आखिर इस संवाददाता को पुलिस के सादी वर्दी वाले दो इंस्पेक्टर को मिली रियायत के साथ रामघाट पर जाने की मंजूरी मिल गई। नागा साधुओं का एक बड़ा दल स्रान के दौरान, बाद में और रवानगी से पहले योग मुद्राओं का प्रदर्शन और जोरदार हर्ष ध्वनि से श्रद्धालुओं को भी विभोर कर रहा है, चारों तरफ से हर हर महादेव हर हर महादेव के जय घोष गंूज रहे हैं। अब जिस आन बान शान से सवारी आई थी, उसी बानगी से लौट चली। करीब नौ बजे हैं श्रद्धालुओं की भीड़ प्रशासन के अनुमान का 40 फीसदी ही होगी, लिहाजा रामघाट, दत्त अखाड़ा घाट पर शाही स्रान के बीच ही आम श्रद्धालुओं का भी स्रान होने लगा। वैसे ये दोनों घाट शाही स्रान के बाद दोपहर दो बजे आम श्रद्धालुओं के लिए खोले जाने थे। इस संवाददाता ने भी अवसर का लाभ लिया और शिप्रा में सिंहस्थ का शाही स्रान किया।
दृश्य-पांच
अखाड़ों के छोटे बड़े दल और हर दल में कुछ नागा साधुओं की उपस्थिति, विदेशी संतों और श्रद्धालुओं की उपस्थिति से शाही स्रान के ये दल हर बार आम श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बने। फोटोग्राफर, मीडिया वीडियोग्राफर शिप्र जल में उतरकर साधुओं की स्रान और हर्षमुद्राओं का क्लिक कर रहे हैं और साधु भी स्रान के साथ ही विभिन्न मुद्राओं में पोज दे रहे हैं। चर्चित स्वामी नित्यानंद और किन्नरों के नवनिर्मित अखाड़े जन रूचि और मीडिया रूचि का केंद्र बने।
दृश्य-छह
शिप्र शिप्र बहने वाली शिप्रा की ही तरह पवन बयार भी मंद मंद बह रही है, धूप तेज हो रही है लेकिन फौहारों के जल से आ रही बौछारों ने घाटों और पुलों पर शीतलता छिड़क रखी है। साढ़े 11 बजे हैं और ये आ गया उदासीन अखाड़ा, यह आखिरी अखाड़ा है, महंत मंडलेश्वर नाराज हैं, शाही स्रान के दौरान आम श्रद्धालुओं को स्रान की इजाजत किसने दी? प्रशासन में हड़बड़ी मच गई। कलेक्टर कवींद्र कियावत आ गए, आम श्रद्धालुओं से बहस मुबाहिसे के बाद घाट पूरी तरह खाली कराया, तब अखाड़े का स्रान हुआ। शाही स्रान के लिए अखाड़ों का मुकर्रर वक्त बीत गया। अब आम लोगों की सभी घाटों पर स्रान की अनुमति है। लोग स्रान करने लगे लेकिन भीड़ वैसी नहीं है कि स्रान का मौका ही न मिले। प्रशासन ने घाटों की संख्या पहले से ही इतनी कर दी है कि यह नौबत न आए। दोपहर के दो बजने वाले हैं, भीड़ शिप्रा के तटों पर तो है ही लेकिन उससे कहीं ज्यादा महाकाल, हरसिद्धी, मंगलनाथ और अन्य मंदिरों की तरफ बढ़ रही है, प्रशासन ने ओवर बेरीकेडिंग कर लोगों को हलकान कर रखा है। बाहर से आए हुए लोगोंं को रास्ते बताने में पुलिस और यातायात पुलिस कर्मी अक्षम साबित हो रहे हैं, वे लोगों को टका सा जबाव देते हैं- हम बाहर से आए हैं लोकल वालों से पूछो। यह हाल छह महीने पहले से शुरू कर दिए गए प्रशिक्षण के बाद है। महाकाल तथा अन्य मंदिरों पर श्रद्धालुओं को दर्शन करने का सहज अवसर नहीं मिल रहा है, लोगों में नाराजी है। स्थानीय लोग इसलिए नाराजी जता रहे हैं कि उन्हें अपने ही घर नहीं जाने और आने दिया जा रहा। घाटों की तरफ बढ़ रहे और लौट रहे लोगों के रेले में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी हैं। कई किलोमीटर दूर वाहन छोड़ने पर मजबूर होने के बाद आॅटो, हाथ ठेले ही धूप में सफर को कुछ आसान बनाने के लिए काम आ रहे हैं। जगह जगह ठंडे पानी की प्याऊ लोगों के धूप से कष्ट को कुछ राहत दे रहे हैं।
दृश्य-सात
घाटों पर स्रान का सिलसिला देर रात तक चलता रहा। इधर मेला क्षेत्र में शिविरों में भोजन परसादी, लंगर की धूम है। प्रवचन कथा भागवत योगाभ्यास जारी है। कहीं कोई साधु शंख बजा रहा है, कहीं कोई योग मुद्रा का प्रदर्शन कर रहा है। कहीं कोई चिलम फूंक रहा है और विदेश शिष्य या शिष्या भक्ति भाव से निहार रहे हैं और फोटो उतार रहे हैं। कहीं कोई हाथ बंचवा रहा है तो कोई कुंडली पढ़वा कर अपना भाग्य जानने की उत्कंठा लिए संत महाराज के चरणों की सेवा में रत है। शाम ढलते ही अस्ताचल सूर्य की रश्मियों से एक बार फिर नर्मदा जल की फुहारें इंद्रधनुषी होकर शिप्रा में मिलने का दृश्य मनोरम हो उठा। मेले में और घाटों पर दूधिया रोशनी उतरने लगी, पता ही नहीं चला कब शाम से रात हो गई, लग ऐसा ही रहा था, मानो रात हुई ही नहीं। महाकाल, हरसिद्धि समेत सभी मंदिरों से संझा आरती के सुर हवाओं में व्याप्त होने लगे। पंडालों में भी आरतियां होने लगीं। अर्धरात्रि होने तक भजन कीर्तन, ब्रम्हचर्या में संत, साधु, भक्त और आचार्य सभी लीन रहे। मेला क्षेत्र में रात मानो होती ही नहीं है। मेला क्षेत्र से बाहर उज्जैन शहर में भी श्रद्धालुओं की मौजूदगी से नगर के प्रमुख स्थलों पर चहल पहल है। सिंहस्थ पर्व के पहले शाही स्रान का दिन बीत गया। आयोजन में दिन रात जुटे शासन प्रशासन के सामने कुछ सवाल भी छोड़ गया यह पहला दिन कि अनुमान से भीड़ कम क्यों आई, खामियां क्या क्या हैं, अगले शाही स्रान में 9 मई को और बेहतर इंतजाम होंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

लो खेती बन गई मुफ्त में बांटने का धंधा

बीते एक दशक में मध्यप्रदेश दहाई अंक में कृषि विकास दर, चार बार कृषि कर्मण अवार्ड पाने वाला और खेती को लाभ का धंधा बनाने के मिशन की तरफ तेजी से दौड़ता राज्य बनकर उभरा प्रचारित हो रहा है, पांच साल में किसानों के मुनाफे को दोगुना करने का हलफ भी उठा लिया गया है। लेकिन हकीकत क्या है? विदिशा में खुद मुख्यमंत्री के खेत में भरपूर पैदा हुए टमाटर उनके सिपहसालार लोगों को मुफ्त में बांटकर वाहवाही लूटने के फोटो खिंचाते दिख रहे हैं। यह क्या रास्ता हुआ भला? दाम नहीं मिल रहे तो मुफ्त में बांटो, गजब का उदाहरण पेश किया जा रहा है। किसान भी ऐसे ही मुफ्त में अपनी उपज बांटने लगे या माटी मोल बेचने को मजबूर हो तो फिर क्या रास्ता उसके पास बचता है, सल्फास? फांसी का फंदा, कीटनाशक? क्या करे, फिर वो बच्चों को क्या खिलाए, खुद क्या खाए? एक दशक से खेती को लाभ का धंधा बनाने का प्रचार करने वाली सरकार किसान की उपज की मार्केटिंग की क्या व्यवस्था बना पाई? टमाटरों का कैचप बनाने के बड़े बड़े वादों का कचमूर कैसे निकल गया? जैसी टमाटर की बंपर पैदावार की दशा 1980 में हुई थी, 10 पैसे किलो बिका फिर फ्री में भी कोई लेना वाला नहीं मिलता था उस वक्त। छत्तीस बरस बाद भी वही हालात क्यों? किसानों से बार बार कहा गया और अब भी कहा जा रहा है कि वे केवल पारंपरिक फसलों गेहूं, चना, सोयाबीन के भरोसे न रहे, फल, सब्जी, फूल इत्यादि की भी खेती साथ में करें। फलां साब के खेत के फूल इतने लाख के बिके, फलां ने टमाटर, प्याज की खेती से इतना मुनाफा कमाया। अब टमाटर और प्याज के दाम दो कौड़ी के कैसे हो गए? और वे कैसे फिंक रहे हैं या मुफ्त बाँटने की हैसियत वाले लग्जरी किसान मुफ्त बांट रहे हैं और असल किसान दो दो आंसू रोने की स्थिति में है। खाद्य प्रसंस्करण के उद्योगों के सपनों का क्या हुआ? क्या होगा खेती के अलावा अन्य तरह की खेती की राहों का? आपको इन सवालों के जबाव देने वाला कोई जिम्मेदार आदमी मिले तो मुझे भी मिलवाइए, कुछ सवाल करने हैं।                                                                                - सतीश एलिया

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

खुश होइए, हैप्पीनेस बस आने ही वाली है


                   - सतीश एलिया
आखिर दुनिया में ऐसा कौन है जो खुश नहीं होना चाहता, या यों कहिए कि ऐसा कौन है दुनिया में जो यह कहता हो कि मैं तो पूरी तरह खुश हूं दुखी तो मैं हूं नहीं, होता ही नहीं। इस असार संसार में दुख ही दुख है, ऐसा जानकार, अनुभव करके ही तो सिद्धार्थ गौतम ने बुद्धत्व की महायात्रा शुरू की थी। अब आप सोच रहे होंगे कि मैं आध्यात्मिकता पर लैक्चर क्यों दे रहा हूं, यह काम तो बाबाओं का है, श्री श्री वगैरह का जो आर्ट आफ लिविंग सिखाते हैं और देश के कानून को धता बताने में भी नहीं चूकते। सरकार अपने वालों की हो तो फिर कानून से क्या डरना, वहीं सैंया भए कोतवाल का नया संस्करण। लेकिन जुमले वालों की दुनिया में इधर हमारे मध्यप्रदेश की सरकार एकदम नई चीज लाई है, कम से कम भारत में तो नया फंड है ही प्रशासन, शासन सरकार का। हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एलान कर दिया है कि सरकार अब हैप्पीनेस मंत्रालय या विभाग बनाएगी जो लोगों को खुश रखने का काम करेगी। गोया खेती को लाभ का धंधा बनाना, किसानों की आय दोगुना करना, गरीबी रेखा के नीचे दबे लोगों को रेखा के ऊपर लाना, बेरोजगारी खत्म करना, बीमारों को इलाज मुहैया कराना, भ्रष्टाचार खत्म करना इत्यादि काम पूरे हो चुके तो अब लोगोें को खुश कर लिया जाए। उधर केंद्र की सरकार विभागों की संख्या कम करने में लगी है और इधर हमारी राज्य की सरकार महकमे बढ़ाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती या यों कहें कि खोज खोज कर नए महकमे बनाने में आगे रहती है। कई बातों में अव्वल रहने के बाद अब हैप्पीनेस मंत्रालय या विभाग बनाने में भी मप्र ने बाजी मर ली। जो भी हो अब मुझे सहूलियत महसूस हो रही है। वह इसलिए कि चौराहों पर, मंदिरों के बाहर बैठे दीन, दुखियों की चिंता में मुझे रोज रोज के अपराध बोध से मुक्ति मिल जाएगी। क्योंकि सरकार ने हैप्पीनेस का काम भी अपने हाथ में ले लिया है। बकायदा विभाग बनेगा, कैबिनेट मंत्री होगा, राज्य मंत्री होगा, प्रमुख सचिव, सचिव, अपर सचिव, उप सचिव, अवर सचिव, अधीक्षक, सेक्शन आफिसर, ग्रेड एक से तीन तक के सहायक होंगे, वाहन होंगे, डीजल, पेट्रोल लगेगा, बकायदा बजट होगा। हैप्पीनेस मंत्र देने वालों को काम मिल जाएगा। आयोग भी बन सकता है, उसमें सदस्य बनेंगे, उनके दफ्तर, गाड़ी, घोड़ा, अर्दली, चपरासी होंगे। कुछ नहीं तो नए महकमे से हजार दो हजार लोगों को रोजगार तो मिल ही जाएगा। कुछ तो बेरोजगारी कम होगी, व्याख्यान देने वालों को प्रशिक्षण देने वालों को भी दो पैसे मिलने की आस बंधेगी। मैं हमेशा आशावादी रहना चाहता हूं और दीन दुखियों के दुखों का अंत होने और जीवन में हैप्पीनेस आने की उम्मीद से भी में आशान्वित हूं। ईश्वर करे हमारे प्रदेश में सब सुखी हों। आखिर हमारे मुख्यमंत्री का कोई भी भाषण सर्वे भंवतु: सुखिन: के बिना पूरा नहीं होता, तो फिर सरकार में यह मंत्रालय अथवा विभाग भी होना ही चाहिए। मेरे लायक कोई काम निकले तो जरूर बताईएगा सरकार, सरकार के सलाहकारों। 

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

फिरंगियों हमारा रुपैया तुम्हारे पौंड पर हो रहा है भारी, एक पौंड पांच रुपैया में


अंग्रेजों को यानी ब्रिटिशर्स को ये नाम उसी वक्त के भारतीयों ने दे दिया था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके जरिए ब्रिटेन की महारानी भारत की सत्ताधीश बन बैठी थी। खैर, मेरा इरादा इतिहास और स्वातंत्र्य समर की गाथा आपको याद दिलाना नहीं है, वह तो हर भारतीय को याद है ही। मैं तो आपको ऐसी बात या वाकया बताने जा रहा हूं जिसका ताल्लुक ब्रिटेन की मुद्रा पौंड से है जिस पर महारानी विक्टोरिया का फोटो होता है और हमारे रुपैया यानी रुपया के मुकाबले में रूपैया की धमाकेदार जीत का है। ज्यादा रहस्य न रखते हुए बता ही देता हूं। अभी मैं एक हफ्ते दिल्ली और एक हफ्ते एनसीआर के हिस्से यानी उप्र के जिला गाजियाबाद में था। आवन-जावन छिटपुट खरीददारी के दौरान बटुए में कई सिक्के आए और गए। एक दिन एक मेडिकल स्टोर पर मैंने पांच सौ रुपए का नोट दिया, बंदे ने हिसाब लगाकर कहा भाई जी आपके पास 10 का नोट हो तो मैं आपको तीन सौ रुपए दे दूं। मुझे लगा बटुए में सिक्कों का वजन कुछ कम होगा सो मैंने 10 का नोट देने के बजाय सिक्का निकाला और उसे दे दिया। ये क्या, उसने मुझे सिक्का लौटाते हुए कहा- ये क्या दे रहे हो भाई जी, ये 10 का सिक्का ना है। मैंने वापस ले लिया और 10 का नोट उसे दे दिया। बाहर आकर मैंने उलट पलट कर सिक्का देखा तो उसके एक तरफ विक्टोरिया का फोटो था ओर चारों तरफ अंकित था, टू पौंडस। अरे, ये मुझे किसी और दुकानदार या टैक्सी वाले ने या रेलवे टिकट काउंटर वाले ने 10 रुपए के सिक्के की जगह दो पाउंड का सिक्का दे दिया। तुरंत नेट पर दर देखी तो एक पौंड बराबर 96.70 भारतीय रुपए। मतलब ये कि ये सिक्का 181 रुपए 40 पैसे का था। अर्थात 171 रुपए 40 पैसे का सीधी फायदा। एक मतलब ये कि कई कई हाथों में घूमता रहा दो पौँड का सिक्का 10 रुपए में ही चल रहा है। जो जॉर्ज पंचम और जो विक्टोरिया सिक्के भारत की छाती पर दो सौ साल चलते रहे अब उन्हें कोई अनजाने में ही सही लेने को तैयार नहीं है। यह देख सुनकर अच्छा लगता है। भारतीय रूपैया कभी वास्तव में पौंड की बराबरी पर आएगा, यह हवाई किले बनाने जैसा सपना नहीं, आखिर एक वक्त था जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त नहीं होता था, आखिर अस्त हुआ ना। आजादी के लाखों दीवानों को मौत के घाट उतारने वाले और भारत राष्ट को विभाजन का दंश देकर लाखों का कत्लेआम होने के हालात बनाने के जिम्मेदार फिरंगियों देख लो तुम्हारी महारानी का फोटो वाला पाउंड पांच रुपए में भी नहीं चल रहा है।