गुरुवार, 18 अप्रैल 2013



विजय शाह के बहाने एक तीर से कई निशाने
                                         - satish aliya
 सार्वजनिक मंच से फूहड भाषण देने के जुर्म में आदिवासी राजकुमार कंुवर विजय शाह का मंत्री पद कलम कर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है।  पहला तो ऐसे मंत्रियों की जुबान पर लगाने की कोशिश की है जो राजनीति में अपनी दम पर न केवल हैं बल्कि मुख्यमंत्री की नियंत्रण परिधि में नहीं आते, और न ही मुख्यमंत्री के प्रसाद के कारण मंत्री पद पर बरकरार हैं, उनका उर्जा स्त्रोत संघ परिवार में कहीं और है। विजय शाह अपनी दम पर विधायक और मंत्री बनने वाले भाजपा नेता जरूर हैं लेकिन वे उन मंत्रियों की फेहरिस्त में नहीं थे जो मुख्यमंत्री को खास तवज्जो नहीं देते। एक अर्थ में शाह मोहरे बन गए, अपनी बदजुबानी के कारण। यह महज संयोग ही है कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भी एक आदिवासी मंत्री दयाल सिंह तुमराची के मंत्री पद की बलि ली गई थी। उन्हें छह हजार रूपए लेने के आरोप में मंत्रिमंडल से रूखसत किया गया था। शिवराज सिंह चैहान न तो दिग्विजय सिंह की तरह ठाकुर नेता हैं और न ही पूर्व सामंत। लेकिन आदिवासी मंत्री को हटाने के मामले में वे उनकी बराबरी पर तो आ ही गए हैं। जैसे शिवराज और दिग्विजय बराबरी के नेता नहीं हैं उसी तरह आदिवासी होते हुए भी विजय शाह दयाल सिंह तुमराची जैसे नहीं हैं। तुमराची सियासत के नेपथ्य में चले गए थे, कंुवर विजय शाह नहीं जाएंगे। यह उन्होंने मंत्री पद से हटते ही जाहिर भी कर दिया। उनके तेवर इस्तीफा देने की मजबूरी में आंसू बहाने के बाद अब तीखे हो गए हैं। देखना यह है कि विजय शाह का मंत्री पद कलम कर शिवराज बाबूलाल गौर, कैलाश विजयवर्गीय, गोपाल भार्गव, अनूप मिश्रा जैसे तेजतर्रार और दो टूक बोलने वाले और अपनी दम पर क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले नेताओं को चुप्पी की मुद्रा में ला पाएंगे। विजय शाह के बहाने कांग्रेस भाजपा के अन्य तेज तर्रार नेताओं को घेरने की कोशिश भले कर रही हो लेकिन उसे इस मुददे का कोई सियासी लाभ होने की उम्मीद नहीं रखना चाहिए, क्योंकि कांग्रेस की मांग के बाद ही शिवराज ने एक आदिवासी मंत्री को घर बिठा दिया। इससे आदिवासियों के बीच पहले ही कमजोर साबित हो चुकी कांग्रेस को कोई बल नहीं मिलने वाला। विजय शाह प्रकरण भाजपा के अंतःपुर में मची रार के बीच एक तात्कालिक बदलाव का कारण जरूर बनता दिख रहा है। वो ये कि उमा भारती और प्रभात झा को राष्टीय उपाध्यक्ष बनाने, शिवराज के बजाय मोदी को संसदीय बोर्ड में लेने से फीकी पडती दिख रही शिवराज तोमर की जुगलबंदी को कुछ चमक फिर से मिल गई है। लेकिन संगठन के स्तर पर जो कमजोरी अंदर ही अंदर पनप रही है, वह इस चमक को ज्यादा देर प्रभावी नहीं रहने देगी। भाजपा की ताकत संगठन ही रही है लेकिन मप्र में यह फिलहाल सत्ता के प्रभाव में है, सत्ता ही संगठन चला रही है न कि संगठन सत्ता को यह संदेश लगातार गहरा रहा है। चुनाव सरकार को नहीं संगठन को लडना है, चुनाव आयोग के डंडे का घूमना शुरू होते ही सरकार का संगठन को चलाना भारी पड सकता है। देखना ये है कि अगले छह महीनों में भाजपा की सत्ता और संगठन में क्या और गुल खिलते हैं, और वे चुनाव में क्या असर दिखाते हैं, कांग्रेस भाजपा की तरफ उम्मीद की निगाह से देख रही है, क्योंकि उनके यहां तो गुटबाजी ही पार्टी की पहचान है, एकता तो मंचों के लिए आरक्षित है।