शनिवार, 22 दिसंबर 2012

बचके रहना रे बाबा कहीं कोई श्री न कह दे

बीते गुरूवार की शाम एक मित्र अचानक ही मिल गए। खूब तपाक से मिले, गले भी लगे। इतना ही नहीं अपने सहकर्मी से मेरा परिचय भी कराया। परिचय कराने से पहले तक तो बात ठीक थी। लेकिन परिचय इस ढंग से कराया कि मैं सकपका और सहम गया। असल मंे उन्होंने कहा कि इनसे मिलिए, ये श्री सतीश एलिया हैं। अब आप कहेंगे जब आपका नाम ही सतीश एलिया है तो इसमें सकपका कैसा! आपकी बात वैसे तो सही है लेकिन मैं सकपकाया इसलिए क्यांेकि हमारे देश की सरकार इन दिनों पदम श्री वगैरह से आगे बढ चुकी है। वो अब देश की सबसे बडी पंचायत संसद में आतंकवादियों को श्री कह रही है। जी हां यूपीए सरकार के ग्रह मंत्री श्री सुशील कुमार शिंदे ने मुंबई हमले के मुख्य आरोपी दुर्दांत पाकिस्तानी आतंकवादी हफीज सईद को श्री कह चुके हैं। यथा राजा तथा प्रजा। तो जब सरकार आतंकवादियों को श्री कह रही है तो फिर जब कोई मुझे श्री कहेगा तो मैं सकपकाउं नहीं तो और क्या करूं! इससे पहले कांग्रेस के अति वाचाल महासचिव दिग्विजय सिंह ओसमा बिन लादेन को ओसामा जी कह चुके हैं। तो अब समझ में नहीं आ रहा है कि व्यक्ति को सम्मानित करने के लिए श्री और जी के विकल्प खो देने के बाद क्या किया जाए! एक दफा मप्र के तत्कालीन विख्यात और अब रसातल को जा रहे अखबार ने डाॅन दाउद इब्राहीम के भारत से फरार होने के समाचार में शीर्षक लगाया था श्री दाउद इब्राहीम भारत से फरार। श्री शिंदे और दिग्विजय सिंह जी का क्या है दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के आरोपियों को भी श्री और जी कह सकते हैं। जैसे कि वे संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल को गुरू कहते ही हैं। उसकी फांसी पर चार साल से अमल नहीं होने दे रहे। लेकिन भाई साब मेरे नाम के पहले श्री और बाद में कोई जी लगाए तो मैं इन दिनों घबरा और सकपका जाता हूं कि मुझे भी आतंकवादी न समझ लिया जाए।

रविवार, 18 नवंबर 2012

sadmein mein kunba makhanlal ka

सदमे मंे कुनबा माखनलाल का

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुनबे के पहले बैच पर वज्रपात हुआ है। हमारा साथी यार वेदव्रत गिरि काल के क्रूर हाथों ने हमसे छीन लिया है। शनिवार को यह मनहूस ह्रदय विदारक समाचार मिला तो दिमाग सुन्न हो गया। अभी दीपावली के एक दिन पहले ही तो भोपाल में मुख्यमंत्री निवास में दोपहर भोज में हम एक घंटे साथ थे। उसने परंपरानुसार मुझे भरपूर गालियां दी और मैंने भी। हमारा याराना ही ऐसा था। हम पहले बैच के थर्टी थ्री ईडियटस थे जो साल भर हाॅस्टल में भी साथ रहे और 21 बरस से मुसलसल यारी मंे थे। सडक हादसे से हमसे हमारा एक ईडियट छीन लिया। इसके पहले करीब आठ बरस पहले प्रदीप दीक्षित की असमय मौत हुई। वेद ने ही बताया कि अवनीत सिन्हा नहीं रहा। तैंतीस में से तीस रह गए हम। वेद को हम न जाने कितने नामों से बुलाते थे। एक जगह थमकर नहीं रहना, धुमक्कडी उसका स्वभाव था। हमने उसे यायावर नाम दिया था। बोलचाल में इतना बेलाग कि गाली उसका तकिया कलाम सा था। हम कहते तुम साले गंवार हो गंवार ही रहोगे। बीडी पर लंबी कविता सुनाता था, अब भी कभी फरमाइश पर मैं उससे वो कविता सुन लेता था। हाॅस्टल में उसके गीतों की गूंज अब भी दिमाग में सुनाई दे रही है। गांडीव, अमर उजाला, चैथा संसार, दैनिक भास्कर, ईटीसी से लेकर राष्ट्रीय सहारा और फिर अपनी बेवसाइट माय न्यूज डाॅटकाॅम और मेरी खबर डाॅटकाम। पत्रकारिता का यायावर वेद । कभी मजाक का बुरा नहीं मानने वाला गिरि अब नहीं है। हमारी प्यारी सखी अल्पना पर जो विपदा आई है, उसकी कल्पना करके ही कलेजा मुहं को आ रहा है। मैंने कल उससे फोन पर बात की थी। तब तक उसे बताया नहीं गया था कि वेद नहीं रहा। उस बिचारी को तो यही बताया गया था कि एक्सीडंेट हुआ है, अस्पताल में है। अब जबकि उसे पता चल गया है तो उससे बात करने का माददा ही नहीं है मुझ में। कल संजीव, अनिल पाराशर, रीमा दीवान, जितेंद्र रिछारिया को मैंने फोन पर सूचना दी तो सब सदमे में डूब गए। हे ईश्वर ये क्यों किया।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

एक दीप धरें मन की देहरी पर

आप सभी को सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। दीप पर्व पर मेरी अपनी एक कविता सुधिजनों को समर्पित है।
 
 
 
 
एक दीप धरें मन की देहरी पर
धीरे धीरे घिरता है तम,
ग्रस लेता जड़ और चेतन को
निविड़ अंधकार गहन है ऐसा सूझ न पड़ता
हाथ को भी हाथ
क्या करें,
कैसे काटें इस तम को
यह यक्ष प्रश्न
विषधर सा
कर देता किंकर्तव्यविमूढ़
तो जगती है एक किरन उम्मीद की
टिमटिमाती कंपकंपाती दीप शिखा सी
आओ लड़ें तिमिर अंधकार से,
एक दीप धरें मन की देहरी पर
प्रेम की जोत जगाएं हम
मिटे अंधियारा
बाहर का भीतर का भी,
आओ दीपमालिका सजाएं,
दीपावली बनाएं 
एक दीप धरें मन की देहरी पर।।
- सतीश एलिया

शनिवार, 25 अगस्त 2012

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

सतपुड़ा की राजकुमारी मढ़ई से मिलना न भूलें

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सतीश एलियाशीर्षक देखकर चैंकिए मत, हम राजे-रजवाड़ों की बात नहीं कर रहे हैं! उनका जमाना गुजरे तो पैंसठ बरस हो गए। हां किस्से-कहानियों में राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी अब भी हैं। लेकिन हम यहां किस्सागोई नहीं बल्कि आपको हकीकत से रूबरू कराने जा रहे हैं। पहेलियां बुझाना खत्म, आपको बता ही देते हैं हम एक ऐसी जगह चल रहे हैं जहां वातावरण शांत है, कल-कल बहती नदी का किनारा है और प्रकृति के आंचल में विचरते वन्य जीव हैं, देशी विदेशी पंक्षियों का कलरव है। अन्य टूरिस्ट स्पॉट की तरह पर्यटकों की रेलमपेल नहीं है। हम बात कर रहे हैं होशंगाबाद जिले के टूरिस्ट स्पॉट मढ़ई की। पचमढ़ी को सतपुड़ा की रानी कहा जाता है। पचमढी रानी है, तो मढ़ई सतपुड़ा की राजकुमारी। भोपाल से करीब 130 किलोमीटर दूर मढ़ई सतपुडा नेशनल पार्क का हिस्सा है। डेढ हजार वर्ग किलोमीटर में फैले विशाल सतपुड़ा के जंगल में इस राजकुमारी मढ़ई का साम्राज्य करीब डेढ सौ वर्ग किलोमीटर में है।
भोपाल से पचमढी के रास्ते में सोहागपुर से पहले एक भारतीय आत्मा पं. माखनलाल चतुवेर्दी का गांव माखननगर यानी बाबई पड़ता है। बाबई से आगे बढ़ने पर मुख्य मार्ग से दाहिनी तरफ का रास्ता मढ़ई को जाता है। करीब 20 किलोमीटर चलने पर एक खूबसूरत नजारा आपके सामने होता है, यह मढई है। ईको टूरिज्म स्पॉट। कल कल बहती देनवा नदी और दूर पहाडियों का नजारा, नदी में लहराती सरपट भागती वोट घाटी से ऐसी दिखती है मानो नीले आसमान में राकेट रफ्तार भर रहा हो। नदी के उस पार वन विभाग का गेस्ट हाउस है। इस पार रिसॉर्ट और कुछ होटल भी बन गए हैं। घाट पर ही आपको सतपुडा टाइगर रिजर्व के काउंटर में भुगतान करने पर बोट, गेस्ट हाउस और भ्रमण के प्रवेश पास मिल जाते हैं। बोट आपको उस पार छोड देती है। गेस्ट हाउस के कक्ष भी मढई को घेरे तीन नदियों देनवा, सोनभद्र और नागद्वारी के नाम पर हैं। गर्मियों मेंं भी इन नदियों को सदानीरा बनाए रखने के लिए तवा डेम से पानी छोड़ा जाता है। देनवा नदी किनारे शाम का अदभुत सौंदर्य आपको स्तब्ध कर देता है, प्रसन्नता से स्तब्ध। चीतल के छौने परिसर में घूमते आपके आगे-पीछे किसी मासूम बच्चे की तरह दुलार करते हैं, नीलगाय आपसे पूछती सी लगती है, हमें क्या लाए हैं?
यहां ढलती शाम और धीरे धीरे आती रात और मोबाइल नेटवर्क का अभाव आपको सुकून से भर देता है। शुभ्र चांदनी रात में मैदान में या फिर गेस्ट हाउस की छत पर आप प्राकृतिक एकांत के सुकून से सराबोर हो जाते हैं। गेस्ट हाउस में सौर उर्जा से चलित धवल रोशनी के छोटे छोटे बल्व और गेस्ट हाउस के किचन में चूल्हे पर बना सौंधे स्वाद वाला भोजन आपकी निशा को विश्राम से पहले तसल्ली से भर देता है। आपका गाइड बता देता है आपको कितने बजे उठकर सफारी पर जाना है। फारेस्ट गार्ड दीपिका सलाह देती हैं अलसुबह यानी सूर्योदय से डेढ दो घंटे पहले जाइए तो बेहतर है। गर्मियों में टाइगर इस वक्त दिख सकता है।

मढई के वन प्रांतर में तफरीह की सफारी तीन तरह की हैं। जिप्सी में गाइड के साथ 22 किमी, 45 किमी या फिर दिन भर का फेरा। हाथी की सफारी है। आधा रास्ता जिप्सी से और फिर टाइगर के दीदार के लिए हाथी पर सवार होकर रास्ता छोड़ वन प्रांतरों की सैर। तीसरी सफारी बोट की है। देनवा नदी में लंबा फेरा शायद टाइगर इस रास्ते से दिख जाए। हम झुटपुटे में ही तैयार होकर गेस्ट हाउस से बाहर आ गए। कुक मोहन यादव ने चाय पिलाकर सफारी की रवानगी के लिए मानो हरी झंडी दिखाई हम चल पड़े, गहन वन की ओर। जिप्सी की सधी चाल कई दफा उंचे नीचे रपटीले उबड़-खाबड़ हो जाने वाले रास्ते पर जरा भी टेड़ी नहीं होती। गाइड और वाहन चालक में गजब का तालमेल। कभी गाइड को तो कभी ड्रायवर को कुछ ऐसा दिखा जो टूरिस्ट को दिखाना है, फौरन आहिस्ता से जिप्सी बैक कर बताते हैं। ये देखिए जंगली गिलहरी, वो सबसे उंचे पेड़ की सबसे उंची टहनी पर, साढ़े तीन फुट की गिलहरी। हमारी निगाह टिक जाती है, इस गिलहरी पर। पल-पल में एक पेड़ से दूसरे पर बंदर से भी तेज गति से छलांग लगाती, कभी काला तो कभी सुनहरा रंग बदलती।
गाइड बताता है यह गिलहरी केवल यहीं सतपुडा के जंगलों में ही पाई जाती है। कुछ आगे बढे तो पगमार्क देखकर गाइड फिर रुका, ये देखिए हमारे आने से पहले ही यहां से भालू गुजरा है। तरह तरह के पंक्षियों के कलरव से गूंजती सुबह, सीधे लंबे और चीकने पात वाले सागवान और साल वृक्षों से भरा जंगल, मादक गंध बिखेरते फूलों और फलों से लदे महुए के पेड़। घाटी उतरते हुए नजर आया पानी से भरा पोंड, यह वन्यजीवों के लिए बनाया गया है। गाइड बताता है, तेंदुआ यहां पानी पीने आता है, परसों कुछ पर्यटकों को दिख गया था। गर्मियों में तेंदुआ और टाइगर कम ही नजर आते हैं। वे अंदर घने वनों में ही रहना पसंद करते हैं।
कुछ और आगे बढेÞ तो चट्टानों के बीच एक ढूंढ पर बैठी नन्हीं रंग-बिरंगी चिड़िया दिखी, अपनी ही दुनिया में खुश। अब गाइड हमें वहां ले जा रहा है, जहां सफारी के लिए हाथियों का डेरा है। छह मादा और एक नर सिद्धनाथ। सिद्धनाथ और प्रिया की बेटी लक्ष्मी अभी 24 अप्रैल को एक बरस की हुई है। डेरे में कोई नहीं है, पांच हथिनियां और महावत काम पर गए हैं, टूरिस्टस को तेंदुए और बाघ के दर्शन कराने की मुहिम पर। प्रिया अपनी बेटी के पास है, छुटटी पर। चौकीदार लक्ष्मी को हमसे मिलवाने लिवा लाया। लक्ष्मी किसी नन्हीं बच्ची की तरह आपसे लाड़ करने लगती है, दूर खडी मां प्रिया निश्चिंत है, सब बेटी को प्यार जो करते हैं। लक्ष्मी अपनी नन्हीं सूंड से आपको दुलार करती है मानो पूछ रही है हमें क्या लाए? वो बिस्किट भी खाती है और टॉफी भी। अपने हिस्से का दुलार मिलते ही फिर मां के पास दौड़ जाती है।
हमारी सफारी का सारथि और पथप्रदर्शक हमें अब आगे ले चला। ये सोनभद्र नदी का किनारा है, अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य सामने है। नदी का कल कल पानी और उस पार लंबे लंबे वृक्षों की कतार। अरे यह कौन से पक्षियों का झुंड है? गाइड बताता है ये प्रवासी पक्षी है यानी दूसरे मुल्कों से आए परिंदे। हर साल आते हैं, बिना किसी न्यौते के। बाकी मेहमान विदा हो चुके हैं, बस ये बचे हैं ब्लैक आइरिश कहते हैं इन्हें।
नदी घाटी के मोड पर वाहन फिर रुका, ये देखिए नीलकंठ एक नहीं कई सारे, ठूंठों पर बैठे हुए। दशहरे पर नीलकंठ का दिखना शुभ माना जाता है, वाहन चालक हमें याद दिला देता है। हमें भी बचपन में रटी पंक्ति याद आती है-नीलकंठ तुम नीले रहियो, हमरी बात भगवान से कहियो, सो रहे हों तो जगाकर कहियो। जब भी नीलकंठ हमें दिखता तो यह यह पंक्ति दोहराते थे।
नीलकंठ के दर्शन के साथ ही सामने दिखी सागौन के सैकडों ठूंठों की कतार। वृक्षों की बेरहम कटाई के गवाह ये ढूंढे दो से तीन दशक के दौरान के हैं। याद आती है पं. भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता- सतपुडा के घने जंगल, उंघते अनमने से जंगल, घुस सको तो घुसो इनमें, हवा तक धंस पाती नहीं, कास चुप है, पलाश चुप हैं। कभी वाकई इतने ही घने रहे होंगे ये जंगल। प्रकृति के विनाश के स्मारक देखकर मन व्यथित हो जाता है। गाइड मानो ढांढस बंधाता है, साब अब नहीं कट पाते जंगल। तीन तरफ नदी और पहरेदारी है, पेड़ काटकर ले जाना अब आसान नहीं। काश ये सच हो।
प्रकृति के सानिध्य में हमारी सफारी आगे बढ़ी सामने है अपनी मस्ती में घास चरता नर चीतल, ठिठक कर हमें देखता है और फिर कुलांचे भरकर हमें दूर भाग जाता है। थोडी दूर चले तो गाइड वाहन चालक को गाडी घुमाने को कहता है। गाडी रुकी, कहीं कुछ भी तो नहीं। गाइड दायीं तरफ सूखी घास की ओर इशारा करता है, ये देखिए सघाना नाइटपार यानी छपका चिड़िया। अरे वही जो रात में चलते वाहनों के विंड स्क्रीन से टकरा जाती है। एकदम घास के रंग में एकमेक चिडिया, साथ में नन्हां बच्चा, मां से चिपका हुआ। कुछ और आगे बढ़े तो जंगली भैंसा यानी गौर का समूह नजर आया। चालक ने रास्ता बदला आगे फिर गति धीमी की, ये देखिए जंगली सुअर, रात भर बाघ से लडने का माद्दा रखता है। जिसे देखने के लिए पर्यटकों की धडकनें बढ़ती रहती हैं, वो कहीं नहीं दिखा, जी हां टाइगर नजर नहीं आया। गाइड कहता है- सतपुडा टाइगर रिजर्व में 46 टाइगर हैं, एरिया डेढ हजार वर्ग किमी है, दिख जाए तो सौभाग्य की बात है। हां अक्टूबर से फरवरी के बीच हर दूसरे तीसरे दिन मढ़ई में बाघ दिखता ही दिखता है। आगे बढेÞ जंगली बिल्ली शिकार की मुद्रा में किसी जंतु पर झपटटा मारती दिख गई। मन को तसल्ली देने मैंने गाइड से कहा टाइगर न सही टाइगर की मौसी तो दिखी।
अब हमारी सफारी का सफर वापसी की राह पर था, चीतलों का समूह यात्रा की शुरूआत में दिखा था, फिर सामने था, इस सीजन में भी इतनी हरी घास, सामने छोटी सी झील कमल कमलिनी खिले हुए। हम गेस्ट हाउस लौट आए। चीतल के छोटे से छौने ने फिर हमें छुआ, नीलगाय भी करीब आ गई। कुक ने चंद मिनिटों में ही नाश्ता और चाय पेश की। डिप्टी रेंजर मिश्राजी मुस्कराते हुए हाल पूछने आए, कैसा लगा मढई। हमने कहा पुरसूकन। आपका स्टाफ और गेस्ट हाउस इस सुकून को और बेहतर बना देते हैं। हमने सामान पैक किया और नाव से देनवा नदी पार की। हमारा वापसी का सफर शुरू हुआ। लेकिन मन में एक पुरसूकन यात्रा की याद है, जब भी मौका मिलेगा फिर मढई जाएंगे। आप भी एक बार मिलिएगा जरूर सतपुड़ा की राजकुमारी से।

 

शुक्रवार, 15 जून 2012

सरपंच बोली-नहीं चलेगी गांव में शराब

 By - Satish Aliya

भोपाल। ये कहानी समाज को बदलने के बुलंद हौसले वाली महिला सरपंच की है। टीकमगढ़ जिले के डूडा टोरा की सरपंच रामबाई लोधी पिछड़े वर्ग की हैं, लेकिन उनकी सोच अपने गांव को बदलने में न केवल प्रगतिशील है बल्कि वे क्रांतिकारी कदम उठाने में भी नहीं हिचकिचातीं।

जिला मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर बसे इस गांव की पहचान शराब बनाने से लेकर शराबखोरी के लिए कुख्यात गांव के रूप में थी। दूसरे गांवों के लोग इस गांव में अपनी बेटियों की शादियां करने में भी हिचकिचाते थे। गांव के जवान हो रहे छोरे भी शराब के खुमार से नजदीकियां बढ़ा रहे थे। इन हालात को बदलने के लिए रामबाई की अगुआई में पंचायत ने इस साल महत्वपूर्ण फैसला किया। इसमें गांव की छवि बदलने की तीव्र इच्छा शक्ति शामिल थी।
एक मार्च 2012 को पंचायत ने शराब बंदी का सर्वसम्मत निर्णय लिया। बकायदा पंचनामा बनाया गया जिसमें दर्ज किया गया कि जो शराब बनाएगा या पिएगा, उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया जाएगा और 10 हजार रुपए जुर्माना भी वसूला जाएगा। गांव के चारों तरफ प्रतीकात्मक तौर पर जूते भी टांगे गए, ताकि शराबनोशी के शौकीनों को याद रहे कि इस गांव में अब यह नहीं चलेगा।
पंचायत ने फैसले पर कड़ाई से अमल के लिए निगरानी समिति भी बना दी। शराबखोरी पर अंकुश लग गया। लेकिन हर अच्छे फैसले से कुछ लोगों को तकलीफ होती है, ऐसा पंचायत के इस फैसले को लेकर भी हुआ। दो महीने तक शराब बंदी पूरी तरह लागू रही, उल्लंघन करने वालों को चेतावनियां मिलीं। लेकिन कुछ लोगों ने पंचायत के फैसले के खिलाफ एसडीएम तक शिकायतें भेजीं।
यह तर्क दिए जाने लगे कि सामाजिक बहिष्कार जैसे फैसले पंचायत नहीं ले सकती। हालात फिर खराब होने लगे हैं। खुलेआम नहीं तो चोरी छिपे शराबखोरी शुरू हो गई है। एक अच्छे फैसले को मिले समर्थन के बाद उसकी अवहेलना होने लगने से रामबाई दुखी हैं लेकिन वे निराश नहीं हैं। पंचायत के सचिव तुलसीराम यादव ने दैनिक भास्कर से कहा कि हम अब कोई नया रास्ता निकालेंगे ताकि समाज को दुष्प्रवृत्ति से बचाने के पंचायत के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सके।
राम बाई कहती हैं हम जून के महीने में ही ग्रामसभा की बैठक में शराब बंदी के फैसले पर न केवल सहमति बनाएंगे बल्कि गांव की महिलाओं को इस अभियान में भागीदार बनाएंगे। आखिर यह गांव हमारा है और शराबखोरी से गांव के पुरूष और नौजवानों का जीवन भी तो खतरे में पड़ता है। उम्मीद की जाना चाहिए कि रामबाई के बुलंद हौसले के आगे शराबखोर पस्त होंगे और गांव में प्रगति की राह खुल सकेगी।


गुरुवार, 24 मई 2012

कोई तो लक्ष्मण रेखा हो

कोर्ट के भीतर सुनवाई चल रही है, अचानक किसी ने कहा सुनवाई पूरी हो गई। कोर्ट से बाहर निकलते आरोपी को धर दबोचने के लिए घात लगाए बैठे कैमरामेन और मीडिया क्रू उस गुलाबी शर्ट पहने व्यक्ति की ओर लपके, सवालों की बौछार। कोर्ट ने आपको सजा सुनाई है, आपका क्या कहना है? व्यक्ति तमतमा गया, क्या बेहूदगी है ये। यह किसी फिल्म या टीवी सीरियल का द्रश्य नहीं बल्कि 14 मई को भोपाल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के प्रांगण में घटा वाकया है। भ्रष्टाचार के आरोपी जिस असिस्टेंट कमिश्नर सुरेश सोनी की बाइट लेने दो दर्जन से ज्यादा मीडिया क्रू ने शर्ट के रंग के आधार पर जिन सज्जन को धर दबोचा वे जज महोदय थे। इतना ही नहीं जब हकीकत पता लगी तो सन्न मीडिया कर्मियों का हुजूम तो सकपका कर दांए बांए हो लिया लेकिन एक टीवी चैनल की ओवी बैन ने उनका फिर रास्ता रोक लिया। बात यहीं तक नहीं थमी असिस्टेंट कमिश्नर सुरेश सोनी को सजा सुनाई जाने की ब्रेकिंग न्यूज यह लिखकर चलाकर एक रीजनल चैनल ने टीआरपी बढा ली कि सुरेश सोनी को सजा। आठ मिनिट तक यह ब्रेकिंग न्यूज चली। जिस व्यक्ति को सजा सुनाई गई उसे नाम को लेकर यह भ्रामक सच महज इसलिए क्योंकि मप्र के सत्ताधारी दल के पित्र संगठन आरएसएस के शीर्षस्थ नेताओं में से एक सुरेश सोनी हैं। लोग ब्रेकिंग न्यूज से चैंक जाएं, यही मकसद था।
मीडिया के लिए लक्ष्मण रेखा खींची जाए या नहीं इस मामले पर छिडी बहस के बीच इस वाकये पर भी गौर करना चाहिए। जाहिर है कांग्रेस की युवा सांसद मीनाक्षी नटराजन के उस प्रस्ताव की मीडिया जगत में आलोचना हो रही है, भाव यही है कि  हम सबकी खामियां निकालेंगे, हमारी कमी कैसे कोई निकाल सकता है। मीडिया पर बंधन लोकतंत्र के लिए बेडियां बन सकता है, यह सही है लेकिन यह भी उतना ही सही है कि कोई तो नियंत्रण हो। मीडिया ही आत्म नियंत्रण करे तो बेहतर लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा। खासकर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की चकाचैंध, बाइट की भागमभाग और टीआरपी की गलाकाट स्पर्धा ने पत्रकारिता के सर्वसिद्ध और सर्वमान्य बुनियादी आधारों को ही हिला दिया है। भोपाल की घटना ने यह साबित कर दिया है कि दो दशकों में भी हमारा इलेक्ट्रानिक मीडिया शैशव में ही है। याद कीजिए कामरेड इंद्रजीत गुप्त देश के ग्रह मंत्री थे, कैबिनेट की बैठक से बाहर आते ही उनसे एक न्यूज चैनल की संवाददाता ने उनसे बाइट ली और इसके बाद उनसे उनका नाम पूछ डाला था। हैलीकाप्टर हादसे में म्रत्यु के बाद जब ग्वालियर में माधवराव सिंधिया की अंत्येष्टि हो रही थी तो एक न्यूज चैनल के एंकर को मैंने अपने संवाददाता से यह पूछते सुना था कि बताओ वहां कैसा माहौल। संवाददाता ने भी जो हुक्म मेरे आका के अंदाज में अंत्येष्टि मंे मौजूद लोगांे से पूछना शुरू कर दिया था कि आपको कैसा लग रहा है। याद कीजिए एक न्यूज चैनल ने लाल किले की पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर चलाई एक स्टोरी में सिलसिलेवार बता दिया था कि कहां से कैसे प्रवेश हो सकता है। ये चैनल भारत के अलावा कई मुल्क में दिखाई देता है। भारत में हमलों के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाने वालों के इससे बेहतर सामग्री और क्या हो सकती है। मुंबई पर हमले के वक्त ताज होटल में कमांडों पहुंचने वाले हैं, पहुंच गए और वे इस वक्त कहां है, यह लाइव दिखाने वाले चैनलों को आतंकवादी सरगना न केवल देखते रहे बल्कि उसी के मुताबिक आतंकियों को निर्देश भी देते रहे। निःसंदेह मीडिया की भूमिका प्रभावी विपक्ष की तरह है लोकतंत्र में। बोफोर्स से लेकर कामनवेल्थ और आदर्श सोसायटी घोटाले तक तमाम भ्रष्टाचार मीडिया के कारण ही उजागर हुए हैं। लेकिन फिर भी कोई न कोई लक्ष्मण रेख तो तय करनी ही होगी। बेहतर होगा कि यह मीडिया जगत खुद करे। 
                                    
                                                  ः सतीश एलिया
                                                                                                

मंगलवार, 15 मई 2012