सोमवार, 23 अगस्त 2010

आया है मुझे फिर याद वो जालिम.......



मुकेश जी का गाया ये गीत इस पूरे महीने से मेरे जेहन में गूंज रहा है। आया है मुझे फिर याद वो जालिम गुजरा जमाना बचपन का.......। इस बार सावन करीब करीब सूखा बीता है लेकिन फिर भी उसका असर तो है ही, यह महीना, यह गाना हमें सावन के महीने और राखी के त्योहार की सुखद स्म्रतियों में ले जाता है। जब हम छोटे थे और घर में, मोहल्ले में और पूरे शहर में त्योहार का माहौल फिजां से लेकर हमारे दिलों तक पर पूरी शिददत से अपना साम्राज्य कर लेता था। लडकियां मेंहदी की झाडियों से पत्ते खुद चुनकर लाती थीं और सहेलियां या बहनें मिलकर उसे पीसती थीं, घर के लडके भी उनका हाथ बंटाते थे। मेरी तो पांच में से तीन बहनें बडी हैं और इकलौते भाई का जलवा किसी राजकुमार से कम न था। पूरे मोहल्ले में सबसे ज्यादा राखी बंधवाने वाले चंद सुपर स्टार्स में हम भी थे। हाथ कंधे तक भर जाता था। फिर पिताजी को राखी बांधने के समय बुआजी भी हमें राखी बांधती थीं। हम तो जगत भैया थे, पिताजी अम्मा भी मोहल्ले वाले भी और घर के किरायेदार भी सभी के भैया। दोस्तों की संख्या इतनी की अब याद करते हैं तो लगता है, क्या बेहतरीन दिन थे। सावन के महीने में भौंरे यानी लकडी के लटटू जिन्हें डोरी मढकर फिर उसे खींचकर जमीन पर नचाया जाता था। पूरे मोहल्ले के लडके रंग बिरंगे लटटू लेकर कौन कितना भौंरा घुमाता है, जमीन से भौंरे को घूमते हुए ही हथेली पर लेने में महारथ हासिल करने वाला इस प्रदर्शन में प्रिंस की तरह सम्मान पाता था। हमने भी भारी प्रेक्टिस के बाद यह गुर सीख ही लिया था। चकरी, जिसमें धागा या तांत की डोरी होती थी, उसे उंगली में फंसाकर घंटो फिराते रहते थे लडकों के हुजूम। लडकियां झूला झूलने और चपेटे खेलने में मग्न रहती थीं। हम जैसे ठसियल लडके चपेटे खेलने में भी पीछे नहीं रहते थे। बेचारी बहनें अपनी सहेलियों के साथ चपेटे खेलने में अपने प्रिय भाई के ठसने से खूब नाराज होतीं थी लेकिन रोने के सिवाय कुछ कर नहीं पाती थीं। सभी बहनों और भाईयों के बीच इस किस्म के झगडे लगे रहते थे। लडकियों का एक डायलाॅग लडकों को मूलतः लडकियों के माने जाने वाले खेलों से भगाने के लिए रामबाण का काम करता था। वे समवेत स्वर में कहती थीं- मोडियों में मोडा खेले वाको बाप चपेटा खेले। लेकिन जब वे चपेटे के खेल में ऐसा कहती थीं तो ढीट बनते हुए लडके कहते बाप नहीं हम खुद ही खेल रहे हैं चपेटे, लो हम चपेटे ही फेंके देते हैं। लडकियांे में चीख पुकार गुहार मच जाती है- ये भैया चपेटे फेकियो मत। चपेटे लाख के मिलते थे बाजार में लेकिन लडकियां पत्थरों को चोकोर घिसकर खुद बनाने में ज्यादा यकीन करती थीं। हमारे मोहल्ले में झूले डालते थे हम लोग लेकिन बहनें ज्यादा झूलती थीं, हम लोगों का मूड हुआ तो लडकियांे को फिर हटना ही पडता था, उन बिचारियों को घरों में मांओं के साथ पकवान बनाने की तैयारी भी करना पडती थी। मेंहदी लडके भी हाथों में रचवाते थे बहनों से। जिन लडकियों को खूब रचती वे कहती भैया खूब चाहता है हमें इसलिए रचती है, और भाई कहते हमारी बहनें खूब चाहती हैं इसलिए देखो खूब सुर्ख रची है मेंहदी। जिनको न रचती तो उनसे कहते अच्छी नहीं थी मेंहदी, अब हाथ में चूना लगा लो फिर तेल मल लेना, मेंहदी का रंग गहरा हो जाएगा। अनगिनत यादें हैं, अनगिनत अनुभव हैं सावन और राखी त्योहार के। दोस्तों के भाई बहनों के खेल खिलौनों के मेंहदी के झूले के राखी के चकरी के भौंरों के चपेटों के। बहनें अब भी हैं, राखी अब भी बंधती है, दोस्त अब भी मिलते हैं, लेकिन न अब वो झूले हैं, न वो चकरी भौंेरे हैं, न मेहंदी की पत्तियां तोडना पीसना रचाना है, न घर में वैसे पकवान बनते हैं और न ही राखी के दूसरे दिन की भुजरिया यानी कजलियों का उत्सव है। लगता है अब सब कुछ मशीनी या औपचारिकता होता जा रहा है, न बच्चों में उस शिददत वाला उत्साह दिखता है। लेकिन बाजारों मंे बसों में रेलों में भीड हैं लोगों को त्योहार मनाने की दिलचस्पी बरकरार है। सब बहनों को सब भाईयों को राखी का पर्व शुभ हो यही कामना है।

ये पोस्ट बीते साल लिखी गयी थी इस साल भी सावन मप्र में सूखा ही है.इसलिए फिर दी है

शनिवार, 14 अगस्त 2010

इस आजादी से तो गुलामी भली....

तिरसठ बरस पहले देश के बंटवारे को स्वीकार कर हमें जो मिला था उसे हम भूलवश आजादी मान बैठे। अगर ऐसा नहीं है तो फिर कॉमनवेल्थ गेम्स का तमाशा हम क्यों आयोजित कर रहे हैं? उसमंे भी भ्रष्टाचार का कॉमन वेल्थ कर करोड रूपए डकारे जा रहे हैं और बेशर्मी की हद ये है कि सरकार इस मामले में कुछ कहती और करती नहीं दिख रही है। दिख रहा है तो इसे राजनीतिक फायदे में बदलने का भाजपा का प्रयास। हालांकि कॉमनवेल्थ के भ्रष्टाचार में वे लोग भी शामिल हैं जो भाजपा और उसके नेताआंे से जुडे हुए हैं और दिल्ली में इन गेम्स की तैयारियों में ठेकेदारी कर जेबें भर रहे हैं। संसद पर हमले के दोषी अफजल को फांसी देने में केंद्र सरकार की मक्कारी देश को आजाद कराने के लिए फांसी के फंदे पर खुशी खुशी झूल गए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत को नकारने जैसा ही है। लेकिन इस मुददे को भी वो भाजपा नेता बार बार कांग्रेस पर हमले के लिए उठाते हैं जिनके राज में केंद्रीय मंत्री की बेटी को छुडाने आतंकवादियों को सम्मान काबुल ले जाया गया था। कोई दूध का धुला नहीं है राजनीति कीचड हो चुकी है। जिन राज्योंमंे भाजपा की सरकारें हैं वहां भी जमीनों के घोटाले, रिश्वतखोरी चरम पर है। संघ से जुडे नेता और कार्यकर्ता भी कांग्रेसियों को मात देने के अभियान में निकल पडे लगते हैं। मध्यप्रदेश में दर्जनों नहीं सैकडों उदाहरण सामने आ चुके और लगातार आते ही जा रहे हैं। पत्रकारिता को चौथा खंबा कहा जाता है लेकिन विज्ञापन की शक्ल में खबरें छापकर जनता के भरोसे को तार तार किया जा रहा है। खबर अब वो है जो बिक सके। ऐसे पत्रकारों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है जिनके यहां इंकम टैक्स का छापा पडता है, जिनके खिलाफ काले धंधों में काम करने के आरोप लगते हैं। जनता की आदिवासियों की हिमायत करने वालों को नक्सली बताकर एनकाउंटर कर दिया जाता है। भूमाफिया, पुलिस, भ्रष्ट नेता और अफसर जनता और उसकी संपत्ति को इस कदर लूट रहे हैं कि अंग्रेज भी शरमा जाएं, क्योंकि उन्होंने दूसरे मुल्कों को लूटा और हम अपने ही मुल्क और लोगों को लूटने में लगे हैं। एक तरफ महंगाई की मार है दूसरी तरफ भ्रष्टाचार किसान आत्महत्याएं करने को मजबूर हैं और सरकार अरबों रूपए फूंककर कॉमनवैल्थ गेम्स कराने पर आमादा है। गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है, खुले में अनाज सड रहा है और दूसरी तरफ लोग भूख से मर रहे हैं। क्या खूब आजादी आई है और इन 63 सालों में हमने क्या खूब प्रगति की है। करीब इतने ही सालों में जापान आर्थिक ताकत बन गया और अब हमारे पडोसी चीन ने आर्थिक ताकत बनने में जापान की बराबरी करने के बाद उसे पछाडने का लक्ष्य हासिल कर लिया है और हम.. इस बात पर खुश हैं कि आखिर हमने अपनी मुद्रा का पहचान चिन्ह खोज लिया है। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कल लाल किले की प्राचीर से महंगाई के खात्मे की सरकारी कोशिशों का बखान करेंगे और देश को ताकत बनाने का अहद दोहराएंगे जो नेहरू, इंदिरा, नरसिंहराव से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक कहते आए और आगे भी मनमोहन या कोई और प्रधानमंत्री कहेंगे ही। लेकिन क्या कोई देश को वाकई ताकतवर बनाने, गरीबी, भुखमरी, बेईमान, भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ करेगा। फिलहाल तो कोई उम्मीद की किरण दिखाई नहीं देती। मुझे लगता है कि मैं गुलामी के दौर में पैदा हुआ होता तो देश पर कुर्बान होकर मरने का लक्ष्य तो होता लेकिन अब अपने ही देश में जिसे हम आजाद कहते हैं गुलामी के से हालात में जीना पड रहा है। दोस्तो आओ कुछ सोचें विचारें, दीवारें गिराकर कोई नई राह निकालें, मिलकर सोचें और कर गुजरें कि हम वाकई आजाद हों, मुल्क आजाद हो और ताकतवर बने; जयहिंद।