सोमवार, 28 दिसंबर 2009

नेहरु से जिन्ना तक सब की रूचि इस मामले में एक

मेरी २७ दिसम्बर की पोस्ट पर श्री आईबी रस्तोगी ने टिप्पणी भेजी है यहाँ ज्यों की त्यों प्रस्तुत है

विकास पुरुष नारायण दत्त तिवारी को महिलाओं के विकास में विशेष रुचि लेने का खामियाजा भुगतना पड़ा। संजय गांधी के दौर में लखनऊ-दिल्ली के बीच अपनी भाग-दौड़ की वजह से वे नयी दिल्ली तिवारी त• • के नाम से पुकारे गये। एक समारोह में तत्कालीन राज कुमार संजय गांधी की चरण पादुकाएं खोज लाने में भी वे काफी मशहूर हुए। वैसे तो अच्छों को बुरा साबित करना दुनिया की पुरानी आदत है। यह बात अभिनेता राज कुमार अपने खास अंदाज में फिल्म में कह गये हैं। अगर हम ठीक से देखें तो आचार्य वात्स्यायन और के देश में जहों कोकशास्त्र को एक ललित कला के तौर पर स्थापित किया गया और खजुराहो में चंदेल राजाओं ने मशहूर मंदिर बनवाये और जहां संभोग से समाधि का नारा देकर पश्चिमी जीवन की धारा पलट देने वाले आचार्य रजनीश ओशो ने अपने कम्यून स्थापित किये । उस देश में जब उम्र के चौथेपन में एक बुजुर्ग समाधि लगाने की प्रैक्टिस कर रहा हो तो उसे छिनरा कहना अपराध है। एन डी तिवारी से सभी को ईष्र्या है क्यों की उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में हर गली में उन्हें डैडी कहने वाले दो-चार लोग मिल ही जाएंगे। तो उनसे ईष्र्या होनी स्वाभाविक ही है की जो काम आज के जवानजहान लडक़े बिना हकीम अर्जुन सिंह उप्पल या डाक्टर एडवर्ड की दवाओं के बिना चल नहीं सकते। वही काम 86 साल के इस बूढ़े जवान ने कर दिखाया। कांग्रेस तो तेलंगाना मुद्दे पर फंस चुकी थी। ऐसे में उसे पब्लिक ध्यान हटाने कोई शिगूफा चाहिए था। एन डी तिवारी की बलि तेलंगाना मुद्दे पर अपनी मिस हैंडलिंग के लिए कांग्रेस ने ली है। वो तो सिर्फ संभोग से समाधि में जाने का अभ्यास कर रहे थे। जो उन्हें इस उम्र में भी चाहिए था। सारा बवाल सिर्फ इस बात का है की हाय उन की जगह हम क्यों नहीं हुए और बकोल हरिशं कर परसाईं हमने और हमारे समाज ने सारी नैतिकता समेटकर टांगों के बीच में रख दी है। जहां तक सवाल पद का है तो अमरीकी राष्ट्रपति के नेडी और हीरोइन मार्लिन मुनरो के संबंध विश्वविख्यात हैं और हाल ही के बिल क्लिंटन-मोनि का लेवेंस्की की कहानियां सभी को याद ही होंगी। फिर और अपने ही यहां साउथ में एमजी रामचंद्रन और जय ललिता के संबंधों पर क्या कीसी ने अंगुली उठाई। दोनों ही मुख्यमंत्री बने। ऐसे में अब सुचिता की बात हास्यास्पद ही लगती है। खास तौर पर तब जब आप जवाहरलाल नेहरू और लेडी एडविना माउंटबैटन के रिश्तों पर आंखें बंद कर लेते हों। क्या किसी को याद है की हिंदुस्तान का बंटवारा जिन्ना की रुट्टी दिनशाव पेटिट से आशनाई और नेहरू-एडविना आशनाई के कमपटीशन में हुआ था। रुट्टी जिन्ना को भले ही 24 घंटे के लिए हो लेकिन प्रधानमंत्री देखना चाहती था और एडविना नेहरू को । लिहाजा दो मुलक बने। हम कुछ नहीं बोलेगा। चोप्प रहेगा।
-आईबी रस्तोगी एलियाजी का ब्लॉग पर टिप्पणी में

रविवार, 27 दिसंबर 2009

इस हमाम में अकेले नहीं है एनडी

उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद पर रहे और आंध्र के राज्यपाल पद पर रहे एनडी तिवारी जिस वजह से बेआबरू होकर निकले हैं, न तो वह और न नही उनका जाना किसी को चौकाता है । एनडी जब केंद्र में मंत्री थे और कांग्रेस के प्रभावशाली ओहदेदार थे, तो मप्र की राजधानी भोपाल में उनका आना जाना लगा रहता था। आंध्र का मामला तो अब सामने आया है, यहां भोपाल में तो उनकी रसिया वृत्ति को इतने किस्से विख्यात हैं की सियासत, प्रशासन और पत्रकारिता से जुड़े हर शख्स के पास एक किस्सा मौजूद है, जो एनडी के शौक और मिजाज को कल्पना की परवाज पर चढक़र नवाबों, बादशाहों के जमाने सा लगने लगता है। जब सीडी खबरों में आई तो भोपाल में पहली प्रतिक्रिया सामने आई की कहीं लोकेशन भोपाल की तो नहीं? लेकिन जिस हमाम में एनडी सराबोर दिखाए गए उस हमाम में तो सेकड़ों नहीं तो दर्जनों बड़े बड़े नेता स्नानरत और निर्वस्त्र हैं। भोपाल में भी राजभवन के किस्से चर्चा में रहे हैं, एक लाट साब के तो इतने किस्से मशहूर हैं की शरीफ आदमी किस्सों से ही शरमा जाए। हालाँकि यह किस्से जुबानों पर ही हैं। एक मुख्यमंत्री के किस्से भी खासे मशहूर हैं। कई नामी पार्टियों के नामी नेताओं के अलग अलग किस्से मशहर हैं। एक दशक पहले एक युवा नेत्री की संदिगध हालात में मौत को लेकर भी कई चर्चाएं आज तक भोपाल और मप्र की फिजाओं में व्याप्त हैं। एक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे एक नेता, एक पूर्व मंत्री और कुछ अफसरों, पत्रकारों की भी ऐसी गजब की ही ख्याति है। सत्ता के केन्द्रों के इर्द गिर्द लाभातुर जमा होते ही हैं, काम्नियों का इस्तेमाल बतौर सीडी होता है, इसकी फिल्म सीडी धमाका करती है। भले एंडी तिवारी हों या संजय जोशी मकसद रस्ते के रोड़े हटाना इनका लक्ष्य होता है, समाज और नेतिकता से इसका वास्ता नही होता.
यह केवल एनडी तिवारी या किसी एक पार्टी या एक शहर या राजधानी का मामला नहीं है, दरअसल सत्ता का यही चरित्र है, भले वह राजनितिक , प्रशासनिक , पूंजी या किसी और तरह की सत्ता हो। इसमें अमूमन संघर्ष के बल पर हुआ उत्थान अंतत: धन, सुरा और सुंदरी गमन के रास्ते पतन की तरफ जाता है। लुब्बे लुआब ये कि इस हमाम में एनडी अकेले नहीं हैं।

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

एक और मकबूल फ़िदा हुसैन

देवी और सरस्वती के अश्शील चित्र बनाने वाले हुसैन के नक्शे कदम पर चल पड़े अनाम से चित्रकार फैयाज ने मंगलवार को भोपाल के भारत भवन में एक चित्र प्रदर्शनी में हनुमानजी का अपमान करने चित्र लगा डाला। हिंदुओं ke वोटों से सत्ता में आने वाली भाजपा की मप्र में सरकार है और इस सरकारी कला भवन में हनुमानजी को पेंट शर्ट पहने और कला चश्मा लगाए भारत भवन को पर्वत की तरह उठाए हुए चित्रित किया गया है। खास बात ये है की हुसैन मप्र के इंदौर के हैं और फैयाज का चित्र मप्र की राजधानी में प्रदर्शित हुआ। इतना ही नहीं बात फैलते ही चित्र तो हटा लिया गया लेकिन मीडिया में इसकी खबर रुकवाने सरकार का जनसंपर्क विभाग जुट गया और सफल ही रहा। जन्संप्रक आयुक्त मनोज श्रीवास्तव भारत भवन के ट्रस्टी भी हैं, हालाँकि जबसे उन्हे संस्कृति सचिव पद से हटाया गया है, वे भारत भवन से खुद को दूर ही रख रहे हैं। ट्रस्टी पद से खुद हटाने के लिए उन्होंने शासन को दो महीने पहले लिखित में आवेदन भी दिया था, लेकिन सरकार ने उसे अब तक मंजूर नहीं किया है। मनोज हनुमानजी के अनन्य भक्त हैं और उनके चरित्र माहात्म्य पर किताब लिख चुके हैं। दुर्गा सरस्वती के अश्श्लिल चित्र बनाने वाले मकबूल फिदा हुसैन को कसाई बताकर हंगामा मचाती रही भाजपा के राज में हनुमानजी के फूहड़ चित्र सरकारी संस्थान में प्रदर्शित होने पर कोई सख्त कार्रवाई के बजाय मामले को दबाने से भाजपा की कथनी करनी अलग बताने वालों के आरोप में और दम पैदा हो जाता है। देखना ये है की हनुमानजी के नाम पर चल रहे संगठन बजरंग दल क लोग इस मामले पर क्या करते हैं। हो सकता है वे कुच्छ न करें और वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों को पीटने क अपने सालाना आयोजन की तैयारी में व्यस्त हों। बहरहाल मारूतिनंदन हनुमान जी महाराज फैयाज को निश्चित ही क्षमा कर देंगे क्योंकि वे जानते हैं की फैयाज नासमझ है, तभी तो उसने ऐसा किया । लेकिन भाजपा और उसकी सरकार का की होगा. अगर बजरंग बली नाराज हुए तो फैयाज को और भाजपा को भला कौन बचा सकता है, सिवाय हनुमान जी के। जय बजरंगवली की

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

सर हरिसिंह गौर के नगर का पार्टियों और नेताओं के गाल पर झन्नाटेदार झापड

मध्यप्रदेश में नगर निगम चुनाव में महान शिक्षाविद, कानूनविद सर डा. हरिसिंह गौर के नगर सागर के मतदाताओं ने प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी भाजपा और केंद्र की सत्ताधीश पार्टी कांग्रेस को झन्नाटेदार झापड सा सबक सिखाया है। प्रदेश में मंगलवार की देर रात आए 12 नगर निगमों के चुनाव में 7 भाजपा, 2 कांग्रेस, 2 बसपा के मेयर चुने गए। लेकिन सबसे ज्यादा 43 हजार वोटों से सागर शहर के लोगों ने निर्दलीय किन्नर कमला भुआ को महापौर पद पर जिताया। सागर से विधायक, सांसद भाजपा के हैं, चुनाव तक महापौर भी भाजपा का ही था। लेकिन जनता ने तय कर लिया था, कि शहर के विकास के मामले में नंपुसक साबित होते नजर आ रहे राजनीतिक दलों के नेताओं के बजाय सबके भले के लिए दुआएं मांगते और अपना दर्द शिव के गरल की तरह पी जाने वाले किन्नर कमला बुआ को चुनना है। कमला बुआ की जीत सागर की दीवालों पर लिखी ऐसी इबारत है जो वोटों की गिनती तो छोडिए मतदान के पहले ही साफ पढने में आ रही थी। मतदान 11 दिसंबर को था और 12 दिसंबर को भोपाल में सागर के एक परिवार के विवाह समारोह में जाने का मुझे मौका मिला। वहां सागर से आए लोगों में सर हरिसिंह गौर विवि के प्राध्यापक, विद्यार्थी, वकील, पत्रकार, दुकानदार, किसान सभी वर्गों के लोग शामिल थे। मैंने बतौर पत्रकार उनसे माहौल जानना चाहा तो सबका एकसुर से कहना था सागर इस बार राजनीतिक किन्नरों को नहीं चुनेगा, लोग तय कर चुके हैं कमला बुआ ही मेयर होंगी। वहां नारा चल रहा था, कमल नहीं कमला चाहिए, हाथ नहीं किन्नर चाहिए। मध्यप्रदेश ने दस साल पहले किन्नर विधायक शबनम मौसी को, पहली किन्नर महापौर कटनी से कमलाजान को चुना था। अब सागर से कमला बुआ प्रथम नागरिक बनी हैं। किन्नर कमला बाई ने दो टूक शब्दों में कहा है कि वे सागर में पैदा हुई हैं, धोखा नहीं देंगी जनता को बल्कि नमक का हक अदा करेंगी। दरअसल राजनीतिक दलों के आधार वाले क्षेत्रों में इस तरह की जन अभिव्यक्ति को राजनीतिक दलों को सबक के तौर पर लेना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से पहले भी ऐसा नहीं हुआ और अब भी ऐसा होगा इसकी उम्मीद न के बराबर ही है। राजनीतिक दल और उनके नेता जो वादे करके जीतते है, उन्हें पूरा नहीं करते। राजनीतिक प्रतिबद्धता के बजाय पद को अपना और रिश्तेदारों का भ्रष्ट तरीकों से कल्याण करने का माध्यम बना लेते हैं। जनता के पास पांच साल टापते रहने के अलावा कोइ्र्र चारा नहीं बचता। पार्षद के चुनाव में दो तीन लाख तक और मेयर के चुनाव में एक करोड रूपए तक बेजा खर्च कर चुके नेता जीतने के बाद सूद समेत वसूलने में जुट जाते हैं। नाराज जनता किन्नर को जिताकर जता रही है कि दल और उनके घर भरू नेता सुधर जाओ, वर्ना भविष्य में और भी तरीके हैं सबक सिखाने के। भ्रष्ट नेताओं के तरफदार पत्रकार, वकील और अफसरों को चेत जाना चाहिए, अन्यथा आने वाला वक्त उन्हंे भी जनता के जरिए न जाने किन किन तरीकों से सबक सिखा सकता है।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

फिर घर में कभी रामायण का पाठ नहीं हुआ

हमारे घर में परंपरा थी कि बड़े भैया के जन्मदिन (1 दिसंबर) को अखंड रामायण का पाठ होता था। 1984 में भी एक दिसंबर को रामायण शुरू हुई और 2 दिसंबर की रात को समापन के बाद पूरा परिवार गहरी नींद में सोया था। सुबह-सुबह कुछ पड़ोसियों ने तेज दरवाजा खटखटा कर उठाया कि गैस रिस रही है। कोई कह रहा था कि घर का गैस सिलेंडर बंद कर लो। कमरे की खिड़की खोल कर देखा तो मेन रोड पर दौैड़ते लोग नजर आए। फिर हम छत पर पहुंच गए, तो देखा एमएसीटी की पहाड़ी पर लोगों का हुजूम लगा हुआ है। इतनी देर में माजरा समझ में आया कि बंटी के पापा की फैक्टरी से कोई जहरीली गैस निकली है, जिससे पुराने शहर में काफी लोग मर गए हैं। इस गैस से बचने के लिए ही लोग नए शहर की तरफ बदहवास दौड़ते चले आ रहे हैं। (बंटी, मेरा हम उम्र था और उसके पापा ने कुछ साल इस मौत की फेक्टरी में नौकरी की थी। जब यह हादसा हुआ, तब तक वे यहां की नौकरी छोड़ चुके थे। उनके बारे में मुझे बस इतना याद है कि वे एक काला ब्रीफकेस लेकर उस जमाने में ऑटो से ऑफिस तक जाते थे।) मेरे बड़े भैया और मोहल्ले के दूसरे लोग पीडि़तों की सहायता के लिए पहुंच गए। कई दिन तक शिविर में रहने वाले लोगों के लिए हमारे व पड़ोसियों के घर से रोटियां गईं। ओढऩे- बिछाने और पहनने के कपड़े भी हम लोगों ने शिविरों में पहुंचाए। हम, नए शहर में रहते थे और हमारा वार्ड गैस पीडि़त नहीं माना गया। इसका मुझे गम नहीं, लेकिन उसके बाद घर में कभी रामायण का पाठ नहीं हुआ। जब भी रामायण की बात आती है, गैस त्रासदी का खौफनाक मंजर और उस दौरान भोगा गया मानसिक संताप पूरे परिवार जेहन में और जुबान पर आ जाता है। फिर हिम्मत ही नहीं होती कि रामायण पाठ का आयोजन करें। 1984 में पहले आरक्षण आंदोलन, फिर इंदिरा गांधी की हत्या और सिक्ख विरोधी दंगे और उसके बाद गैस त्रासदी। इस सबके कारण जनरल प्रमोशन तो मिल गया, लेकिन आज भी लगता है कि उस साल हुए नुकसान की भरपाई आज तक नहीं हो पाई।- मनोज जोशी, भोपाल

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

उम्र से लंबा हादसा, दुनिया ने नहीं लिया भोपाल से सबक

आज नौ हजार एक सौ पच्चीस दिन हो गए भोपाल में बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कारबाइड से जहरीली गैस रिसने से शुरू हुई सतत त्रासदी को। हादसे के वक्त और तब से अब तक के ढाई दशक में हजारों लोग इस नासूर का शिकार हो चुके हैं। राहत, पुनर्वास और मुआवजे की लंबी त्रासद प्रक्रिया, राजनीति के घटाटोप में पीडि़तों को न्याय और दोषियों को बाजिब सजा मिलने की संभावना कहीं गुम हो गई है। सामूहिक नरसंहार के बदले भारत सरकार ने यूनियन कारबाइड से जो 750 करोड़ रुपए लिए थे, उसका उचित रूप से बंटवारा नहीं हो सका। साढ़े सात लाख मुआवजा दावे थे, उनमें से सबका निपटारा तक नहीं हो सका। समूचे भोपाल को गैस पीडि़त घोषित करने की मांग पर ढाई दशक से राजनीति जारी है। पूर्व में भी और वर्तमान में भी गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर इस बीच एक दफा मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं, उनका सबसे बड़ा मुद्दा ही यही रहा है लेकिन यह पूरा नहीं हो सका।
करोड़ों की लागत से बनीं भव्य इमारतें जिन्हें अस्पताल नाम दिया गया है, में करोड़ों रुपए खर्च कर विदेशों से लाई गई मशीनें धूल खा रही हैं। अगर इन अस्पतालों में सब कुछ ठीक से चलने लगे तो भोपाल देश का सर्वाधिक स्वास्थ्य सुविधा संपन्न शहर हो सकता है। लेकिन दो दशक में ऐसा होने के बजाय हालात और बदतर हो गए हैं। दवाएं खरीदने के नाम पर घोटालों के बीच अपने सीने में घातक गैस का असर लिए गैस पीडि़त आज भी तिल तिलकर मर रहे हैं। दवाओं का टोटा न अस्पतालों में नजर आता है और न ही आंकड़ों में। लेकिन लोग दवाओं के लिए भटकते रहते हैं।
विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी का तमगा हासिल कर चुके इस भोपाल हादसे के मुजरिमों को न केवल तत्कालीन सरकारों ने भाग जाने दिया बल्कि बाद की सरकारों ने नाकाफी हर्जाना लेकर समझौता करने से लेकर आपराधिक मामले में धाराएं कमजोर करने जैसे अक्षम्य अपराध कर कानूनी पक्ष को कमजोर किया। इससे प्राकृतिक न्याय की मूल भावना कमजोर हुई। आर्थिक हर्जाना कभी मौत के मामले में न्याय नहीं हो सकता, फिर यह तो सामूहिक नरसंहार का मामला है। उच्चतम न्यायालय ने 13 सितंबर 1996 के फैसले में यूनियन कारबाइड से जुड़े अभियुक्तों के खिलाफ आईपीसी की दफा 304 के स्थान पर 304- ए के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। इसके तहत यूका के खिलाफ फैसला होने पर अभियुक्तों को दो वर्ष कैद और पांच हजार रुपए जुर्माने की सजा होगी। इस मामले में यूनियन कारबाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, यूका ईस्टर्न हांगकांग तथा यूका इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा समेत 10 अन्य अभियुक्त बनाए गए थे। एंडरसन प्रमुख अभियुक्त होने के बावजूद भारत में अदालत के सामने पेश नहीं हुआ।
भोपाल हादसे से किसी भी तरह का सबक नहीं लिया गया है। आज भी भोपाल में और देश भर में घनी आबादियों के बीच घातक कारखाने धड़ल्ले से चल रहे हैं। हर कहीं हर कभी छोटे छोटे भोपाल घट रहे हैं। ढाई दशक बाद न भोपाल ने न मप्र ने न भारत ने और न ही दुनिया ने भोपाल से कोई सबक लिया है।
क्रमश.. .. जारी